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यदि॑न्द्र पृत॒नाज्ये॑ दे॒वास्त्वा॑ दधि॒रे पु॒रः । आदित्ते॑ हर्य॒ता हरी॑ ववक्षतुः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad indra pṛtanājye devās tvā dadhire puraḥ | ād it te haryatā harī vavakṣatuḥ ||

पद पाठ

यत् । इ॒न्द्र॒ । पृ॒त॒नाज्ये॑ । दे॒वाः । त्वा॒ । द॒धि॒रे । पु॒रः । आत् । इत् । ते॒ । ह॒र्य॒ता । हरी॒ इति॑ । व॒व॒क्ष॒तुः॒ ॥ ८.१२.२५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:25 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:5» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:25


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शिव शंकर शर्मा

उसका महत्त्व दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र परमात्मन् ! (यद्) जब (देवाः) इन्द्रियगण या विद्वान् (पृतनाज्ये) सांसारिक संग्राम में विजयप्राप्ति के लिये (त्वा) तुझको (पुरः) अपने सामने (दधिरे) रखते हैं (आद्+इत्) तत्पश्चात् ही (ते) तेरे (हर्यता) प्रिय (हरी) स्थावर और जङ्गम संसार (ववक्षतुः) तुझे प्रकाशित करने लगते हैं। अर्थात् जब विद्वान् परमात्मा के ध्यान में निमग्न होते हैं, तब ही यह सृष्टि तुझे उनके समीप प्रकाशित करती है अर्थात् इस सृष्टि में विद्वान् तुझे देखने लगते हैं ॥२५॥
भावार्थभाषाः - इस संसारसागर से वे ही पार उतरते हैं, जो उसकी शरण में पहुँचते हैं, भक्तगण उसको इस प्रकृति में ही देखते हैं ॥२५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यत्) जो (देवाः) शूरवीर विद्वान् (त्वा) आपको (पृतनाज्ये) संग्राम में (पुरः) प्रथम ही (दधिरे) हृदय में धारण करते हैं (आत्, इत्) इसी से (हर्यता) रमणीय (ते, हरी) आपकी आत्मरक्षण और प्रहरणरूप दो शक्तियें (ववक्षतुः) उनको धारण करती हैं ॥२५॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! जो शूरवीर आपको संग्रामसमय हृदय में धारण करते हैं अर्थात् युद्ध करते हुए आपसे विजय की याचना करते हैं, वही संग्रामभूमि में विजय को प्राप्त होते हैं, अतएव विजय की कामनावाले शूरवीरों को सदैव परमात्मा से विजय की याचना करनी चाहिये, क्योंकि उनकी कृपा विना विजय प्राप्त नहीं हो सकती ॥२५॥
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शिव शंकर शर्मा

तस्य महत्त्वं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! यद्=यदा। देवाः=इन्द्रियाणि विद्वांसो वा। पृतनाज्ये=सांसारिकसंग्रामे। त्वा=त्वाम्। पुरोऽग्रे। दधिरे= धारयन्ति स्तोतुं ध्यातुं वा। आदित्=तदन्तरमेव। हर्यता=कान्तौ=प्रियौ। ते=तव सम्बन्धिनौ। हरी=उभयात्मकौ संसारौ त्वाम्। ववक्षतुः=वहतः प्रकाशयतः। इत्यध्यात्मवर्णनम् ॥२५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यत्) यस्मात् (देवाः) विद्वांसः (त्वा) त्वाम् (पृतनाज्ये) संग्रामे (पुरः) प्रथमं (दधिरे) धारयन्ति (आत्, इत्) अतएव (हर्यता) रमणीये (ते, हरी) तव आत्मरक्षणप्रहरणरूपे शक्ती (ववक्षतुः) धत्तः ॥२५॥